*बभ्रुवाहन ने क्यों किया अपने ही पिता अर्जुन का वध*महाभारत युद्ध में भीष्म पितामह की मृत्यु से युधिष्ठिर को बहुत दुख हुआ। तब महर्षि वेदव्यास व श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया और धर्मपूर्वक शासन करने के लिए कहा। शोक निवारण के लिए महर्षि वेदव्यास ने युधिष्ठिर से अश्वमेध यज्ञ करने के लिए भी कहा। तब युधिष्ठिर ने कहा कि इस समय राजकोष खाली हो चुका है। अश्वमेध यज्ञ करने के लिए बहुत से धन की आवश्यकता होती है, जो अभी उपलब्ध नहीं है। युधिष्ठिर की बात सुनकर महर्षि वेदव्यास ने बताया कि पूर्व काल में राजा मरुत्त ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था। उस यज्ञ में उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत सा सोना दिया था। बहुत अधिक मात्रा में होने के कारण ब्राह्मण वह सोना अपने साथ नहीं ले जा पाए। वह सोना आज भी हिमालय पर पड़ा है। उस धन से अश्वमेध यज्ञ किया जा सकता है। युधिष्ठिर ने ऐसा ही करने का निर्णय लिया।महर्षि वेदव्यास के कहने पर पांडव हिमालय पर गए और वहां राजा मरुत्त के धन को प्राप्त कर लिया। उस धन को ढोने के लिए पांडव बहुत से हाथी- घोड़े व सेना लेकर गए थे। उनकी संख्या इस प्रकार है; साठ हजार ऊंट, एक करोड़ बीस लाख घोड़े, एक लाख हाथी, रथ और छकड़े। इनके अलावा गधों और मनुष्यों की तो गिनती ही नहीं थी। इस प्रकार इतना सारा धन पांडव हस्तिनापुर लेकर आए। और शुभ मुहूर्त देखकर यज्ञ का शुभारंभ किया और अर्जुन को रक्षक बना कर घोड़ा छोड़ दिया। वह घोड़ा जहां भी जाता, अर्जुन उसके पीछे जाते। अनेक राजाओं ने पांडवों की अधीनता स्वीकार कर ली। वहीं, कुछ ने मैत्रीपूर्ण संबंधों के आधार पर पांडवों को कर देने की बात मान ली। किरात, म्लेच्छ व यवन आदि देशों के राजाओं ने यज्ञ के घोड़े को रोक लिया। तब अर्जुन ने उनसे युद्ध कर उन्हें पराजित कर दिया। इस तरह विभिन्न देशों के राजाओं के साथ अर्जुन को कई बार युद्ध करना पड़ा।यज्ञ का घोड़ा घूमते- घूमते मणिपुर पहुंच गया। यहां की राजकुमारी चित्रांगदा से अर्जुन को बभ्रुवाहन नामक पुत्र था। बभ्रुवाहन ही उस समय मणिपुर का राजा था। चित्रांगदा ने बभ्रुवाहन को उसके पिता का नाम नहीं बताया था। किन्तु अर्जुन को अपने पुत्र की वीरता दिखाना चाहती थी। अतएव उसने बभ्रुवाहन को कहा था कि अर्जुन को हराने के बाद ही उसकी वीरता प्रशंसनीय होगी। जब बभ्रुवाहन को अर्जुन के आने का समाचार मिला तो उनसे मुकाबला करने के लिए वह नगर के द्वार पर आया। अर्जुन भी यह नहीं जानता था कि बभ्रुवाहन उसका ही अपना बेटा है। बभ्रुवाहन को देखकर अर्जुन ने कहा कि मैं इस समय यज्ञ के घोड़े की रक्षा करता हुआ तुम्हारे राज्य में आया हूं। इसलिए तुम मुझसे युद्ध करो। अर्जुन और बभ्रुवाहन में भयंकर युद्ध होने लगा। बभ्रुवाहन का पराक्रम देखकर अर्जुन बहुत प्रसन्न हुए। बभ्रुवाहन उस समय युवक ही था। अपने बाल स्वभाव के कारण बिना परिणाम पर विचार कर उसने एक तीखा बाण अर्जुन पर छोड़ दिया। उस बाण के चोट से अर्जुन बेहोश होकर धरती पर गिर पड़े। बभ्रुवाहन भी उस समय तक बहुत घायल हो चुका था, वह भी बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। तभी वहां बभ्रुवाहन की माता चित्रांगदा भी आ गई। अपने पति व पुत्र को घायल अवस्था में धरती पर पड़ा देख उसे बहुत दुःख हुआ। चित्रांगदा ने देखा कि उस समय अर्जुन के शरीर में जीवित होने के कोई लक्षण नहीं दिख रहे थे। अपने पति को मृत अवस्था में देखकर वह फूट- फूट कर रोने लगी। उसी समय बभ्रुवाहन को भी होश आ गया। जब उसे पता चला कि अर्जुन उसका पिता है और उसने अपने पिता की हत्या कर दी है तो वह भी शोक करने लगा। अर्जुन की मृत्यु से दुखी होकर चित्रांगदा और बभ्रुवाहन दोनों ही आमरण उपवास पर बैठ गए।तभी अचानक श्रीकृष्ण प्रकट होकर नाग कन्या उलूपी की सहायता लेने की बात करते हैं। नागकन्या उलूपी ने वहाँ आकर संजीवन मणि का स्मरण किया। उस मणि के हाथ में आते ही उलूपी ने बभ्रुवाहन से कहा कि यह मणि अपने पिता अर्जुन की छाती पर रख दो। बभ्रुवाहन ने ऐसा ही किया। वह मणि छाती पर रखते ही अर्जुन जीवित हो उठे। अर्जुन द्वारा पूछने पर उलूपी ने बताया कि यह मेरी ही मोहिनी माया थी। उलूपी ने बताया कि छल पूर्वक भीष्म का वध करने के कारण वसु देवता आपको श्राप देना चाहते थे। जब यह बात मुझे पता चली तो मैंने यह बात अपने पिता को बताई। उन्होंने वसुओं के पास जाकर ऐसा न करने की प्रार्थना की। तब वसुओं ने प्रसन्न होकर कहा कि मणिपुर का राजा बभ्रुवाहन अर्जुन का पुत्र है यदि वह बाणों से अपने पिता का वध कर देगा तो अर्जुन को अपने पाप से छुटकारा मिल जाएगा। और संजीवन मणि से अर्जुन को पुनर्जीवित किया जा सकेगा। आपको वसुओं के श्राप से बचाने के लिए ही मैंने यह मोहिनी माया दिखलाई थी। इस प्रकार पूरी बात जान कर अर्जुन, बभ्रुवाहन और चित्रांगदा भी प्रसन्न हो गए। अर्जुन ने बभ्रुवाहन को अश्वमेध यज्ञ में आने का निमंत्रण दिया और पुन: अपनी यात्रा पर चल दिए।इस प्रकार अर्जुन अन्य देशों के राजाओं को पराजित करते हुए पुन: हस्तिनापुर आए। अर्जुन के आने की खबर सुनकर युधिष्ठिर आदि पांडव व श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। तय समय पर उचित स्थान देखकर यज्ञ के लिए भूमि का चयन किया गया। शुभ मुहूर्त में यज्ञ प्रारंभ किया गया। यज्ञ को देखने के लिए दूर- दूर से राजा- महाराजा आए। पांडवों ने सभी का उचित आदर- सत्कार किया। बभ्रुवाहन, चित्रांगदा व उलूपी भी यज्ञ में शामिल होने आए। यज्ञ संपूर्ण होने पर युधिष्ठिर ने पूरी धरती ब्राह्मणों को ही दान कर दी है। तब महर्षि वेदव्यास ने कहा कि ब्राह्मणों की ओर से यह धरती मैं पुन: तुम्हे वापस करता हूं। इसके बदले तुम सभी ब्राह्मणों को स्वर्ण दे दो। युधिष्ठिर ने ऐसा ही किया। युधिष्ठिर ने सभी ब्राह्मणों को तीन गुणा सोना दान में दिया। इतना दान पाकर ब्राह्मण भी तृप्त हो गए। ब्राह्मणों ने पांडवों को आशीर्वाद दिया। इस प्रकार अश्वमेध यज्ञ सकुशल संपन्न हो गया।

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