ज्योतिषाचार्य मुक्ति नारायण पाण्डेय ( हस्त रेखा, कुंडली, ज्योतिष विशेषज्ञ )

Gyan Ganga: धन वैभव से भरी लंका में क्यों खुद को अकेला महसूस कर रहे थे विभीषण?

 

Gyan Ganga: धन वैभव से भरी लंका में क्यों खुद को अकेला महसूस कर रहे थे विभीषण?

श्रीविभीषण जी ने मानो इन चंद शब्दों में अपनी संपूर्ण पीड़ा को समेटने का प्रयास कर दिया। अभी तक तो श्रीहनुमान जी के माध्यम से केवल श्रीराम कथा ही चल रही थी, लेकिन श्रीविभीषण जी को अपनी बात कहने का अवसर मिला, तो उन्होंने भी अपनी ‘चाम व्यथा’ कहने में देर नहीं की।

श्रीहनुमान जी एवं श्रीविभीषण जी के मध्य घट रही, यह मधुर प्रभु प्रेमियों की रस भरी मिलनी का योग, युगों में कहीं एक बार देखने को मिलता है। धन्य हैं गोस्वामी तुलसीदास जी, जो इस भक्त कल्याण कारक स्मृति का आँखों देखा विवरण, अपनी कलम से लिखने का सौभाग्य प्राप्त कर रहे हैं। गोस्वामी जी कहते है, कि श्रीहनुमान जी से श्रीविभीषण जी ने तो पूछ लिया, कि आप कौन हैं। लेकिन यहाँ आश्चर्य श्रीहनुमान जी को भी था, कि प्रभु का इतना महान व बड़ा भक्त, भला लंका नगरी में क्या कर रहा है। श्रीहनुमान जी पूछ लेते हैं, कि आप हैं तो प्रभु के भक्त, लेकिन यहाँ रावण की पाप नगरी में आप क्या कर रहे हैं। हालाँकि बाहरी दृष्टि से देखेंगे, तो श्रीविभीषण जी का लंका की राज सभा में कोई छोटा मोटा पद नहीं था। सर्वप्रथम तो वे लंकेश व दशानन रावण के छोटे भाई थे। जिस कारण उनका चरित्र व शक्ति स्वाभाविक रूप से ही सर्वमान्य स्वीकार्य था। फिर वे रावण के मंत्री मंडल में, राजा रावण के पश्चात, सबसे बड़े मंत्री पद्भार पर आसीन थे। तीसरा पूरी लंका नगरी में श्रीविभीषण जी का व्यक्तित्व, उनके भक्तिभाव के कारण, सबको आदरणीय था। हालाँकि राक्षसी प्रवृति होने के कारण, बाहर से भले ही राक्षसों की तमोवृति, उन्हें श्रीविभीषण जी का प्रभुत्व मानने में अड़चन पैदा कर रही हो। लेकिन भीतर ही भीतर सबको पता था, कि पूरी लंका नगरी में अगर कोई धर्म पर अडिग है, तो वे श्रीविभीषण जी ही हैं। इतना सब होने के पश्चात भी, क्या कारण था, कि श्रीविभीषण जी लंका नगरी का त्याग नहीं कर पा रहे थे। क्या श्रीविभीषण जी को लंका का यह तमोमय वातावरण प्रिय लगने लगा था? अथवा विभीषण जी को प्राप्त यहाँ की माया से भी थोड़ा बहुत लगाव हो गया था। श्रीहनुमान जी को जब मन ही मन यह जिज्ञासा उठी थी कि- ‘इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।।’ तो उनके मनोभाावों में प्रश्नों की मानों भारी भरकम पोटली थी। जिसे श्रीविभीषण जी के मासूम हृदय ने, जैसे सुन-सा लिया था। वे श्रीविभीषण जी, जिन्होंने आज तक अपनी हीनता व दीनता किसी को नहीं कही थी। आज श्रीहनुमान जी के समक्ष, अपने संपूर्ण हृदय कपाट खोल कर रख देते हैं। श्रीविभीषण जी कहते हैं, कि हे श्रीरामप्रिय! दुनिया निःसंदेह लिलायत होगी ऐसी उपलब्धियों के लिए, जो कि लंका नगरी में मुझे प्राप्त हैं। धन, पद व बढ़ाई का मुझे कहीं कोई अभाव नहीं है। लेकिन कोई नहीं जानता कि धन वैभव से सनी लंका रूपी माया नगरी के भरे मेले में भी, मैं वैसे ही अकेला हूँ, जैसे आकाश में असंख्य तारों के मध्य, चमकता पूर्णिमा का चाँद अकेला होता है। ऐसा भी नहीं कि मैं महान पद् व काल को वश में करने वाले, मेरे भाई रावण के होते हुये, सब और से सुरक्षित हूँ। आपको आश्चर्य होगा, कि मैं ठीक वैसे असुरक्षित हूँ, जैसे बत्तीस दाँतों के मध्य जीहवा असुरक्षित रहती है-




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Comment form message